
कुछ बिखर रहा है,
जो था कल तक संजोया,
वो सब अस्त व्यस्त हो रहा है,
दिमाग़ कहता है हाथ बढ़ा,
और समेट ले इस बिखरते हुए को,
मगर दिल कहता है,
छूट जाने दे हर जकड़े हुए को,
तितर बितर हो जाने दे इस समेटे हुए को,
देखें तो ज़रा,
यह सिमटा हुआ कितना बिखरता है,
जो कल तक अभिन्न हिस्सा था मेरा,
वो बिखर जाने पर कितनी दूर तक जाता है,
जिन रिश्तों को मैं मुट्ठी में थामे अपना कहता था,
मुट्ठी के खुल जाने पर वो कितना अपना रहता है?
कितने अजीब होते हैं ना रिश्ते,
गले में मोतियों की माला से टंगे हुए,
जिनकी प्रदर्शनी हम दुनिया के आगे करते घूमते हैं,
जैसे हमारी आन बान शान सब यहीं हैं,
ये हमसे नहीं बल्कि हम ही इनसे हैं,
जब किसी से मिलते हैं तो इनपर उँगलियाँ फिराने लगते हैं,
पता नहीं दुनिया का ध्यान इन पर आकर्षित करते हैं,
या निश्चित कर लेना चाहते हैं,
ये माला बिखर तो नहीं रही?
मगर घर पहुँचते ही उतार कर रख देते हैं किसी अलमारी में,
एक बोझ हल्का हुआ समझ कर।
समाज भी तो एक आदर्श परिवार को,
खूबसूरत माला की तरह सराहता हैं,
हम इस बात पर बाहर से खूब इतराते हैं,
मगर रात होते ही कराहने लगते हैं,
उस तनाव से,
जो इन मोतियों को एक संग बांधे रखने के लिए
हमें धागा बन जाने में सहना पड़ता है,
एक धागे की ही तरह उन मोतियों में समा,
खुद को अदृश्य कर देना पड़ता है,
एक परिवार के अस्तित्व के लिए,
खुद के अस्तित्व को भूल जाना पड़ता है।
दिल इस तनाव से अब थक गया है शायद,
या शायद वो अपनी पहचान फिर से पाना चाहता है,
एक धागा अब धागा कहलाना चाहता है,
फिर चाहे वो मोतियों के बिना साधारण ही क्यूँ ना दिखे,
या वो देख लेना चाहता है कि बिना गाँठ के
मोती उसके क़रीब रहते हैं,
या बिखर जाते हैं अपनी अपनी पहचान लिये हुए,
किसी की अंगूठी की शोभा बढ़ाने के लिये,
या किसी और माला में पिरोए जाने के लिए,
अगर ऐसा है तो फिर क्या बिखर रहा है?
जो अपना था ही नहीं,
वही तो पराया हो रहा है।
So intriguing, loved it ❤️
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We all go through such thoughts at least once in a lifetime
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The unspoken words.. U hv portrayed the dilemma beautifully !
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