मेरे अंदर जब शब्द खौलने लगते हैं,
तो मैं अपने अंतर मन के कूकर को
एकांत के ढक्कन से बंद कर लेता हूँ ,
शब्द उबल उबल कर,
अंदर ही अंदर पकने लगते हैं,
शब्दों की सीटी बजने लगती है,
कभी छोले की मिठास सी कविता पकती है,
तो कभी राजमा की खट्टास सा छंद,
गाहे बगाहे कहानी की कोई तरकारी भी पक जाती है।
मेरा मस्तिष्क शब्दों के
राजमा, छोले और तरकारी का स्वाद चखने लगता है ,
मगर जितना वह इन्हें चखता है,
सीटी उतना ही तेज़ बजने लगती है,
सीटीयों की गिनती बढ़ती जाती है,
साथ ही साथ उनकी आवाज़ का तीखापन भी,
शब्दों का दबाव इतना बढ़ जाता है,
कि कुछ सीटियों के बाद ,
मैं अंतर मन के ढक्कन को
एकांत से दूर भाग झट से खोल देता हूँ,
डर लगता है कि कहीं देर ना हो जाए,
और सीटियों का सिलसिला तोड़कर,
कूकर फट ना जाए।
कूकर के अंदर का दबाव ख़त्म हो जाता है,
मन के भीतर, सन्नाटा पैर पसार लेता है,
ना कोई सीटी और ना ही शब्दों की सुगबुगाहट,
मस्तिष्क उपवास के दिन काटने लगता है,
और शब्द खामोशी के पतीले में खो जाते हैं,
ढक्कन के एक बार फिर बंद हो जाने के लिये,
एक बार फिर खौल जाने के लिये,
सीटियों का एक और सिलसिला
बन जाने के लिये।
कभी-कभी दिल करता है
कि एकांत के एक लम्बे दौर में चला जाऊँ,
इस ढक्कन को कुछ दिनों या महीनों तक बंद रहने दूँ,
सीटियों का एक लम्बा सिलसिला चलता रहे,
शब्दों का उबाल ख़त्म ना हो,
और मस्तिष्क के लिये कुछ निरंतर पकता रहे,
आख़िर देखूँ मैं भी कि इन छंदों, कविताओं या नन्ही कहानियों
के अलावा कुछ और भी पक पाता है,
या शब्दों का उबाल कुछ देर में ठंडा पड़ जाता है ।
मगर डर लगता है,
कूकर के फट जाने का,
और शब्दों के सूख जाने का,
खुद के ख़ाली हो जाने का,
एक शब्द विहीन रेगिस्तान बन जाने का,
तो अब ढक्कन को खोल देता हूँ,
अंदर से ये छंद, कविता या कहानी जैसा,
यह जो भी निकला है,
उसे आपको परोस देने के लिये।
What a yumm meal !! 🙂 Your words are magic..
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Bahut gazab likha hai, loved it 👌
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