मेरी खिड़की

मेरे कमरे से बाहर की दुनिया कुछ ऐसी दिखती है।

कितनी रंगीन है ना दुनिया? 

हरा, नीला, लाल, पीला, नारंगी , मजेंटा, आसमानी। मैं हर शाम अपनी खिड़की के सामने बैठ बाहर के रंगों को गिनने लग जाता हूँ और रंग जैसे मुझसे लुक्का छिपी खेलने का मन बना चुपके से पहाड़ के पीछे छिप जाते हैं। मैं खिड़की के थोड़ा और क़रीब आ जाता हूँ मगर रंग कहीं दिखाई नहीं पड़ते। मैं झांक कर नीचे देखता हूँ तो ज़मीन सुर्ख़ सफ़ेद दिखती है। आसमान में काला अंधेरा पसरने लगता है । रंग तलाशती मेरी उदास आँखों को देख, कुछ तारे दौड़े चले आते हैं मेरा मन बहलाने को। कुछ देर मुझसे बातें कर वे मेरा मन बहलाते हैं किंतु चाँद के आते ही झट से नदारद हो जाते हैं।शायद वे थक जाते होंगे मेरे बचपने भरे सवालों से। उन्हें भी लगता होगा कि वयस्क के शरीर में ये बचपने से भरा मस्तिष्क क्यूँ छिपा बैठा है?

ख़ैर, मेरे इंतज़ार का सहभागी बैन चाँद आसमान में मंडराने लगता है और मैं नीचे बहती नदी की सतह पर उसके अक्स को हिलता डुलता देख एक बार फिर रंगों को तलाशने लगता हूँ। मेरी आँखों की तलाश को भाँप, चाँद खुद में रंग उतारने की कोशिश भी करता है। कभी सोने सा हल्का फीका पीला रंग ओढ़ लेता है तो कभी चाँदी सी चमक में ढल जाता है। मगर मुझे सोने – चाँदी के गोल सिक्के से क्या लेना देना। मुझे तो मेरा सतरंगी आसमान  चाहिये। रंगों से सराबोर क्षितिज का वो छोर चाहिए, जिसको देखते ही मेरा चित इंद्रधनुष सा रंगीन हो उठता है। कुछ देर के प्रयास के बाद चाँद थक कर पहाड़ के पीछे बनी अपनी कुटिया में जा बैठता है। अपने पिता के आने और तोहफ़ों के इंतज़ार में खिड़की के काँच पर चेहरा चिपकाए बच्चे सा बैठ, मैं एक बार फिर रंगों का इंतज़ार करने लगता हूँ। 

बैठे बैठे मेरी आँख लग जाती है और मैं खुद को एक अलग दुनिया में पाता  हूँ। इस दुनिया में कुछ भी सफ़ेद या काला नहीं है।हर तरफ़ रंग ही रंग हैं।ज़मीन पर सात रंग, पहाड़ पर भी सात रंग और आसमान भी सात रंगों से भरा। झील में आसमान की परछाई ऐसे दिखती है जैसे पहाड़ों से होली खेलने के लिये बादलों ने पानी में रंग घोल दिया हो।तभी  मेरी नज़र पास से गुजरते एक इंसान पर पड़ती है।यह इंसान कुछ अलग सा प्रतीत होता है। वह ना तो गोरा है ना ही काला। आस पास नज़र दौड़ाता हूँ तो पाता हूँ कि बाक़ी सब इंसानों के चेहरे भी ऐसे ही हैं।सभी के चेहरों पर ७ रंगों की वक्र धारियाँ खिंची हैं।सिर्फ़ चेहरे ही नहीं बल्कि पूरा शरीर ७ रंगों से बना है। हर इंसान एक जैसा दिखता है।  केवल आँखें अलग हैं उनकी। गौर से देखने पर मैं महसूस करता हूँ कि  अगर किसी को पहचानना हो तो उसकी आँखों में झाँक कर देखना होगा । कुछ की आँखें  उथली हैं तो कुछ की गहरी और कुछ की काफ़ी गहरी। किसी की आँखें ख़ामोश हैं  तो किसी की बातूनी। मगर सबकी चमक बराबर, चमकती आँखों वाले सतरंगी इंसान। मैं शब्दों में बतला नहीं  सकता आपको कि यह दुनिया कितनी खूबसूरत है।

दिल में खुद को देखने का ख़याल आता है और मैं अपना दाहिना हाथ उठाता हूँ। मेरी आँखों में रंग तैर जाते हैं। अरे वाह! मेरे हाथ तो इंद्र धनुष जैसे सतरंगी हैं। मैं बाँया हाथ उठाता हूँ और विषमय एवं चमक भरी नज़र से अपने दोनो हाथों को देखता हूँ। कितना रंगीन दिख रहा हूँ, मैं। बिलकुल मेरी खिड़की के बाहर आसमान जैसा। हाथों को चेहरे के क़रीब ला, मैं चेहरा टटोलता हूँ तो रंगों की छुअन और सुगंध से खुद को सराबोर पाता हूँ। मेरे मन में ख़याल आता है कि अरे! मैं रंगों को छू सकता हूँ। मारे उत्साह के मैं सारे कपड़े उतार देता हूँ और अपने पूरे शरीर पर रंगों की धारियाँ को छूने लगता हूँ। मेरा रोम रोम सात रंगो की धारियों से भरा पड़ा है। मैं समझ नहीं पाता कि मैंने रंगों को ओढ़ लिया है या मैं खुद रंगों से बना हुआ हूँ। 

अविश्वास और विश्वास के बीच की पतली सी रेखा के बीच मैं विस्मित व भ्रमित हो अभी खुद को टटोल ही रहा होता हूँ कि लाल रंग का एक प्रकाश मेरी आँखों पर पड़ता है। मैं नज़र उठाता हूँ मगर सामने कुछ नज़र नहीं आता। पूरी दुनिया अब केवल लाल रंग से भरी दिखती है। लाल रंग के इस प्रकाश में, दुनिया ओझल सी होने लगती है। रंगों की दुनिया अब लाल-सिंदूरी हो चुकी है और मेरी आँखों को केवल सुर्ख़ प्रकाश ही नज़र आता है। लाल रंग से चौंधियाई आँखों से घबरा मैं तुरंत आँखें खोल इस दुनिया में लौट आता हूँ। सामने दो चोटियों के बीच के फ़ासले में लाल सूरज मुस्कुरा रहा है। मैं समझ नहीं  पाता कि मैं स्वप्न लोक से लौट आया हूँ या फिर स्वप्न लोक में लौट आया हूँ। अरुण (red sun) की  यह मुस्कुराहट देख मेरी आँखों से इंतज़ार और उदासी नदारद हो जाती है। क्षितिज के उस पार आसमान एक बार फिर रंगों से भरने लगता है। मैं खिड़की से  पीछे हट अपने सिरहाने के क़रीब पहुँच जाता हूँ। लिहाफ़ टांगों से होता हुआ मेरे शरीर को ढक लेता है और मैं बिस्तर पर लेटा लेटा अपनी खिड़की से बाहर की दुनिया को निहारता  रहता हूँ।

कितनी रंगीन है ना ये  दुनिया? कितनी रंगीन है ना ये सुबह!

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Published by HimalayanDrives

While living in a city, I often escaped to the mountains to keep a balance within me. These short visits to the Himalayas and a journey of 100 days in Himachal brought me closer to nature and I started listening to the whispers of nature. This page is about converting those whispers to words and carry nature's message for all. I mostly travel solo but sometimes organise trekking camps for people who want to reach closer to nature. Join me for these trips and explore the unexplored.

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