प्रथम भाग
ऊँचे आसमान में उड़ते एक मदमस्त बादल की नज़र अचानक ही भूतल पर विचरण करती एक शांत नदी पर पड़ती है। बादल यह देखकर अच्म्भित रह जाता है कि नदी में उसे अपना प्रतिबिम्ब नज़र आ रहा है। वर्षों से यात्रा करते इस बादल ने कभी खुद को इतने स्पष्ट तौर पर नहीं देखा था। उसने तो धरातल पर केवल अपनी परछाई ही पाई थी। कभी ऊँचे पहाड़ों पर तो कभी घास के सपाट मैदान में, कभी जल से भरे सागर की सतह पर तो कभी सूखे मरुस्थल में। अपनी इस लम्बी यात्रा में बादल ने कई पड़ाव तय किये और हर स्थान से एक परछाई सा गुजरता चला गया था। ना जाने कितनो ने उसकी इस परछाई को पकड़ बादल को थामना चाहा था किंतु बादल तो एक उन्मुक्त उड़ान का हो चुका था और इस उन्मुक्त्तता की मदहोशी में निरंतर उड़ता ही चला जा रहा था। ना उसका कोई तय रास्ता था ना किसी से कोई वास्ता। उसकी परछाई तो उसके अक्स का एक हिस्सा मात्र थी तो उस परछाई को छू कैसे कोई उसे जान सकता था, कोई कैसे उसे थाम सकता था?
मगर आज यह कौन नज़र आया जिसमें बादल ने अपनी एक स्पष्ट झलक पाई थी? उत्सुकता से भरे बादल ने कुछ देर ठहर जल की इस धारा में खुद को निहारने की ठानी। वह वहीं मंडराने लगा।
नीचे बहती नदी को अकस्मात् ही अपने पारदर्शी मन में कोई हलचल प्रतीत हुई। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे छुआ हो। नदी ने इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर अपने आस पास किसी को ना पाया। दो आयामों (dimension) को माप नदी ने तीसरे आयाम की ओर देखा तो एक बादल को खुद में झांकते पाया।
बादल अपने ही ख़्यालों में खोया इस बात से अनभिज्ञ था कि नदी अब उसकी ओर ताक रही थी। नदी का मन हुआ की आवाज़ लगा कर बादल से पूछे – ऐ आवारा क्या टुकुर टुकुर ताक रहा है मेरी ओर? पहले कभी कोई नदी नहीं देखी क्या? मगर वह कुछ कह ना सकी, यूँ तो उसने कई बादल देखे थे किंतु यह बादल कुछ अलग सा प्रतीत हुआ। नदी को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे बादल कुछ उस सा ही है। आकार में छोटा मगर भीतर एक संसार छिपाए हुए। कई बरस बीत गए थे उसे एक लम्बी यात्रा पर निकले हुए किंतु अब तक किसी को खुद सा ना पाया था। अपने अस्तित्व की पहचान की तलाश में पहाड़ की चोटी से उतरी नदी कई पहाड़ों, घाटियों और मैदानों का सफ़र तय कर चुकी थी। वह जहां भी जाती खुद को एक नये रूप में ही पाती। अपनी इस निरंतर यात्रा में नदी कभी झरने के रूप में ऊँचे पर्वतों से उफनती हुई बहती तो कभी किसी ऊँचे घास के मैदान में पहुँच एक शांत झील का रूप ले लेती। कभी तंग घाटियों में एक मामूली सी जल की धारा बन सिमट जाती तो कभी मैदानी पठार पर पहुँच विशाल रूप ले लेती। वह खुद तय नहीं कर पा रही थी कि उसका वास्तविक स्वरूप कौन सा है, उसकी पहचान क्या है? दुनिया उसे बस यही कहती रहती कि उसके जीवन का उद्देश्य सागर तक पहुँचना है। जब वह अपने सफ़र पर निकली, तब यही सोच कर निकली थी कि जल्द से जल्द सागर से मिलना है और अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करना है। मगर पृथ्वी की सुंदरता और यात्रा की ख़ूबसूरती को देख उसने तय किया कि वह सागर से मिलने से पहले कुछ और वक्त लगायेगी इस संसार को देखने, परखने और समझने में। पिता स्वरूप पहाड़ के बताए मक़सद और मार्ग को छोड़ वह निकल पड़ी पृथ्वी पर कुछ दिनो का विचरण करने, यात्रा की ख़ूबसूरती को थोड़ा और महसूस करने। मार्ग में उसे कुछ दूसरी नदियाँ भी दि खाई पड़ीं, जो पहले ही सागर से जा मिली थीं।
अल्हड़, चंचल और मदमस्त बहती इस नदी को देख उन परिपक्व नदियों ने उसे टोका और नए रास्तों की ओर बढ़ने का कारण जानना चाहा। किसी ने उसे अपने मार्ग पर लौट जाने को कहा तो किसी ने उसे अनजाने रास्तों का भय दिखाया। एक नदी ने तो यह तक बतलाया कि वह भी उसी की तरह निकल पड़ी थी नए रास्ते तलाशने मगर अनजान रास्ते इतने कठिन और अनिश्चितताओं से भरे थे कि अंत में थक हार कर उसे लौट ही जाना पड़ा, अपने नियत रास्ते पर। मगर इस नदी ने हार ना मानी, उन्मुक्त सफ़र के सुख के आगे रास्तों की कठिनाइयाँ उसके लिये कुछ ना थीं। वह इठलाती, लहराती, मचलती खिलखिलाती बढ़ती रही। एक दिन एक जीर्ण शीर्ण, थकी हारी, ख़ामोश सी नदी से बात चीत के दौरान, इस उन्मुक्त नदी ने जाना कि एक नदी जब सागर से मिलती है तो सागर में समा जाती है। समुंदर ने अपने वजूद को इतना विशाल बना लिया है कि वह नदियों को अपने आगे कुछ नहीं समझता। समुंदर से मिलकर नदी अपने अस्तित्व को पाती नहीं बल्कि अपने अस्तित्व को खो बैठती है। यह सुनते ही नदी सन्न रह गई। उसकी उम्मीदों और कामनाओं का संसार एक पल में धराशाई हो गया। उसे लगा जैसे उसके जीने का उद्देश्य और उसकी अब तक की यात्रा एक झूठ की बुनियाद पर टिकी थी। तेज गति से धरती को मापती नदी एक झटके में ठहर गई। वक्त बीत रहा था और नदी आगे बढ़ने के बजाय वहीं ठहर थोड़ा फैलने लगी। उसने आगे बढ़ना का इराद त्याग दिया। कलकल करती, निरंतर बहती जल की धारा अब उद्देश्यहीन और गुमसुम तालाब सी थम चुकी थी। चंचल, अल्हड़, मनमौजी सी किशोर नदी एक झटके में प्रौढ़ सी दिखने लगी। मित्र पंछी, उसकी गोद में खेलते पौधे, उसकी सखी मछलियाँ और उसके नातेदार जानवर यह मानने लगे थे कि यह नदी का आख़िरी पड़ाव है। खुद में खोई सी, शांत हो ठहर सी गई इस नदी की शांत सतह को ही आईना समझ इस आवारा बादल ने उसमें झाँका था, अपनी ही तलाश में फिरते एक यात्री ने इस नदी में कुछ ऐसा देख लिया था जो वह कहीं ना देख सका था।
बरसों से उड़ते बादल ने आज अपनी गति को थाम कुछ देर वहाँ ठहर नदी के भीतर झाँक खुद को देखना चाहा। बादल अपने भीतर बूँदों के रूप में ख़यालों का एक सागर लिये फिर रहा था और अक्सर अपने भीतर की इन बूँदों में खुद ही खो जाता था। कभी सिकुड़ कर नन्हा सा बादल बन जाता तो कभी अपनी इन्हीं सोच को फैला पहाड़ सा विशाल बन जाता। इस वक्त भी वह अपने ही भीतर उतर बूँदों के संसार में तैर रहा था।
नदी, जो पिछले कुछ दिनों से दूसरों से आँख बचाती फिर रही थी आज इस बादल की नज़र से सकुचाई नहीं बल्कि उसे भीतर एक कुलबुलाहट सी महसूस हुई। नदी कुछ पलों तक चुपचाप उस बादल की ओर देखती रही और बादल खुद में ही खोया रहा। नदी को पता ही ना लगा कि उसके भीतर की इस कुलबुलाहट से कलकल की ध्वनि पैदा होने लगी। कलकल की इस अचानक ध्वनि से बादल का ध्यान टूट गया और वह सकपका गया। बादल ने तुरंत नज़रें फेर ली। अब नदी की ओर उसकी पीठ थी। सर्दियों के मौसम में घर की छत पर कुछ इंच निकली चिमनी से उठते धुआँ सा था इस बादल का आकार। ना गोल ना आयत, ना त्रिकोण ना वर्ग। छोटे छोटे कई वक्रों से बना एक ऐसा स्वरूप जिसका कोई ठोस आकार नहीं। छोटा मगर दूर तक फैला हुआ, ऊपर उठता मगर पृथ्वी की सतह के साथ साथ बहता हुआ। ना इसके आरम्भ का पाता ना अंत का। आदतन नदी हर मिलने वाले की छवि और आकार मन में कुरेद लेती थी किंतु इस बार नदी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि बादल को किस स्वरूप में याद रखेगी।
बादल आगे बढ़ने को हुआ कि तभी नदी पुकार बैठी – सुनो!
अगर आगे लिखने लायक़ है तो बताइएगा। बाक़ी का लिखा अगले ब्लॉग में डालूँगा…
Interesting! Continue with the second part…
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Thank you. Will post it soon!
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