पाठ १
ऊँचे आसमान में उड़ते एक मदमस्त बादल की नज़र अचानक ही भूतल पर विचरण करती एक शांत नदी पर पड़ती है। बादल यह देखकर अच्म्भित रह जाता है कि नदी में उसे अपना प्रतिबिम्ब नज़र आ रहा है। वर्षों से यात्रा करते इस बादल ने कभी खुद को इतने स्पष्ट तौर पर नहीं देखा था। उसने तो धरातल पर केवल अपनी परछाई ही पाई थी। कभी ऊँचे पहाड़ों पर तो कभी घास के सपाट मैदान में, कभी जल से भरे सागर की सतह पर तो कभी सूखे मरुस्थल में। अपनी इस लम्बी यात्रा में बादल ने कई पड़ाव तय किये और हर स्थान से एक परछाई सा गुजरता चला गया था। ना जाने कितनो ने उसकी इस परछाई को पकड़ बादल को थामना चाहा था किंतु बादल तो एक उन्मुक्त उड़ान का हो चुका था और इस उन्मुक्त्तता की मदहोशी में निरंतर उड़ता ही चला जा रहा था। ना उसका कोई तय रास्ता था ना किसी से कोई वास्ता। उसकी परछाई तो उसके अक्स का एक हिस्सा मात्र थी तो उस परछाई को छू कैसे कोई उसे जान सकता था, कोई कैसे उसे थाम सकता था?
मगर आज यह कौन नज़र आया जिसमें बादल ने अपनी एक स्पष्ट झलक पाई थी? उत्सुकता से भरे बादल ने कुछ देर ठहर जल की इस धारा में खुद को निहारने की ठानी। वह वहीं मंडराने लगा।
नीचे बहती नदी को अकस्मात् ही अपने पारदर्शी मन में कोई हलचल प्रतीत हुई। उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे किसी ने उसे छुआ हो। नदी ने इधर उधर नज़र दौड़ाई मगर अपने आस पास किसी को ना पाया। दो आयामों (dimension) को माप नदी ने तीसरे आयाम की ओर देखा तो एक बादल को खुद में झांकते पाया।
बादल अपने ही ख़्यालों में खोया इस बात से अनभिज्ञ था कि नदी अब उसकी ओर ताक रही थी। नदी का मन हुआ की आवाज़ लगा कर बादल से पूछे – ऐ आवारा क्या टुकुर टुकुर ताक रहा है मेरी ओर? पहले कभी कोई नदी नहीं देखी क्या? मगर वह कुछ कह ना सकी, यूँ तो उसने कई बादल देखे थे किंतु यह बादल कुछ अलग सा प्रतीत हुआ। नदी को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे बादल कुछ उस सा ही है। आकार में छोटा मगर भीतर एक संसार छिपाए हुए। कई बरस बीत गए थे उसे एक लम्बी यात्रा पर निकले हुए किंतु अब तक किसी को खुद सा ना पाया था। अपने अस्तित्व की पहचान की तलाश में पहाड़ की चोटी से उतरी नदी कई पहाड़ों, घाटियों और मैदानों का सफ़र तय कर चुकी थी। वह जहां भी जाती खुद को एक नये रूप में ही पाती। अपनी इस निरंतर यात्रा में नदी कभी झरने के रूप में ऊँचे पर्वतों से उफनती हुई बहती तो कभी किसी ऊँचे घास के मैदान में पहुँच एक शांत झील का रूप ले लेती। कभी तंग घाटियों में एक मामूली सी जल की धारा बन सिमट जाती तो कभी मैदानी पठार पर पहुँच विशाल रूप ले लेती। वह खुद तय नहीं कर पा रही थी कि उसका वास्तविक स्वरूप कौन सा है, उसकी पहचान क्या है? दुनिया उसे बस यही कहती रहती कि उसके जीवन का उद्देश्य सागर तक पहुँचना है। जब वह अपने सफ़र पर निकली, तब यही सोच कर निकली थी कि जल्द से जल्द सागर से मिलना है और अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करना है। मगर पृथ्वी की सुंदरता और यात्रा की ख़ूबसूरती को देख उसने तय किया कि वह सागर से मिलने से पहले कुछ और वक्त लगायेगी इस संसार को देखने, परखने और समझने में। पिता स्वरूप पहाड़ के बताए मक़सद और मार्ग को छोड़ वह निकल पड़ी पृथ्वी पर कुछ दिनो का विचरण करने, यात्रा की ख़ूबसूरती को थोड़ा और महसूस करने। मार्ग में उसे कुछ दूसरी नदियाँ भी दि खाई पड़ीं, जो पहले ही सागर से जा मिली थीं।
अल्हड़, चंचल और मदमस्त बहती इस नदी को देख उन परिपक्व नदियों ने उसे टोका और नए रास्तों की ओर बढ़ने का कारण जानना चाहा। किसी ने उसे अपने मार्ग पर लौट जाने को कहा तो किसी ने उसे अनजाने रास्तों का भय दिखाया। एक नदी ने तो यह तक बतलाया कि वह भी उसी की तरह निकल पड़ी थी नए रास्ते तलाशने मगर अनजान रास्ते इतने कठिन और अनिश्चितताओं से भरे थे कि अंत में थक हार कर उसे लौट ही जाना पड़ा, अपने नियत रास्ते पर। मगर इस नदी ने हार ना मानी, उन्मुक्त सफ़र के सुख के आगे रास्तों की कठिनाइयाँ उसके लिये कुछ ना थीं। वह इठलाती, लहराती, मचलती खिलखिलाती बढ़ती रही। एक दिन एक जीर्ण शीर्ण, थकी हारी, ख़ामोश सी नदी से बात चीत के दौरान, इस उन्मुक्त नदी ने जाना कि एक नदी जब सागर से मिलती है तो सागर में समा जाती है। समुंदर ने अपने वजूद को इतना विशाल बना लिया है कि वह नदियों को अपने आगे कुछ नहीं समझता। समुंदर से मिलकर नदी अपने अस्तित्व को पाती नहीं बल्कि अपने अस्तित्व को खो बैठती है। यह सुनते ही नदी सन्न रह गई। उसकी उम्मीदों और कामनाओं का संसार एक पल में धराशाई हो गया। उसे लगा जैसे उसके जीने का उद्देश्य और उसकी अब तक की यात्रा एक झूठ की बुनियाद पर टिकी थी। तेज गति से धरती को मापती नदी एक झटके में ठहर गई। वक्त बीत रहा था और नदी आगे बढ़ने के बजाय वहीं ठहर थोड़ा फैलने लगी। उसने आगे बढ़ना का इराद त्याग दिया। कलकल करती, निरंतर बहती जल की धारा अब उद्देश्यहीन और गुमसुम तालाब सी थम चुकी थी। चंचल, अल्हड़, मनमौजी सी किशोर नदी एक झटके में प्रौढ़ सी दिखने लगी। मित्र पंछी, उसकी गोद में खेलते पौधे, उसकी सखी मछलियाँ और उसके नातेदार जानवर यह मानने लगे थे कि यह नदी का आख़िरी पड़ाव है। खुद में खोई सी, शांत हो ठहर सी गई इस नदी की शांत सतह को ही आईना समझ इस आवारा बादल ने उसमें झाँका था, अपनी ही तलाश में फिरते एक यात्री ने इस नदी में कुछ ऐसा देख लिया था जो वह कहीं ना देख सका था।
बरसों से उड़ते बादल ने आज अपनी गति को थाम कुछ देर वहाँ ठहर नदी के भीतर झाँक खुद को देखना चाहा। बादल अपने भीतर बूँदों के रूप में ख़यालों का एक सागर लिये फिर रहा था और अक्सर अपने भीतर की इन बूँदों में खुद ही खो जाता था। कभी सिकुड़ कर नन्हा सा बादल बन जाता तो कभी अपनी इन्हीं सोच को फैला पहाड़ सा विशाल बन जाता। इस वक्त भी वह अपने ही भीतर उतर बूँदों के संसार में तैर रहा था।
नदी, जो पिछले कुछ दिनों से दूसरों से आँख बचाती फिर रही थी आज इस बादल की नज़र से सकुचाई नहीं बल्कि उसे भीतर एक कुलबुलाहट सी महसूस हुई। नदी कुछ पलों तक चुपचाप उस बादल की ओर देखती रही और बादल खुद में ही खोया रहा। नदी को पता ही ना लगा कि उसके भीतर की इस कुलबुलाहट से कलकल की ध्वनि पैदा होने लगी। कलकल की इस अचानक ध्वनि से बादल का ध्यान टूट गया और वह सकपका गया। बादल ने तुरंत नज़रें फेर ली। अब नदी की ओर उसकी पीठ थी। सर्दियों के मौसम में घर की छत पर कुछ इंच निकली चिमनी से उठते धुआँ सा था इस बादल का आकार। ना गोल ना आयत, ना त्रिकोण ना वर्ग। छोटे छोटे कई वक्रों से बना एक ऐसा स्वरूप जिसका कोई ठोस आकार नहीं। छोटा मगर दूर तक फैला हुआ, ऊपर उठता मगर पृथ्वी की सतह के साथ साथ बहता हुआ। ना इसके आरम्भ का पाता ना अंत का। आदतन नदी हर मिलने वाले की छवि और आकार मन में कुरेद लेती थी किंतु इस बार नदी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि बादल को किस स्वरूप में याद रखेगी।
बादल आगे बढ़ने को हुआ कि तभी नदी पुकार बैठी – सुनो!
पाठ २
सुनो! कहते ही नदी से झट से अपने मुँह पर हाथ रख लिया। जैसे शब्द उसके अनचाहे ही निकल गये थे। उसे प्रतीत हुआ कि ज़ुबान खोले बिना ही आवाज़ मन से सीधा बाहर निकल आई।
आवाज़ सुनते ही बादल पलट गया।
उसकी पलकों ने 4-5 बार तेज़ी से एक दूसरे को छुआ और फिर अलग हो ठहर गयीं। वह अचरज से नदी की ओर ताकने लगा। क्या सच में इस नदी ने उसे पुकारा था?
बादल को ऐसे तेज़ तेज़ पलकें झपका फिर एक टक खुद को निहारते देख नदी शर्मा गई। नदी ने पलकें धीमे से नीचे कर लीं और ठीक उसी वक्त सूरज क्षितिज को छोड़ धरती के उस पार चला गया। डूबते सूरज का सुनहरा रंग नदी की सतह पर फैलता चला गया। बेरंग नदी अब सूर्यास्त के रंग ओढ़ पिघले सोने सी चमक रही थी। बादल अचरज सा नदी के इस रूप को देख रहा था।
नदी ने धीमे से पलकों को फिर उठाया और बादल की ओर देखा तो पाया की वह अब भी उसे ताके जा रहा था।
पल बीतते चले गए और दोनो चुपचाप एक दूसरे को देखते रहे।
नदी ने अपने तल में बहती रेत रूपी वर्णों को खंगाला और शब्द ढूँढने लगी। वह कभी सकुचाती तो कभी अपने भीतर शब्द टटोलती। बादल बुत सा नदी की ओर देखता रहा मगर धीमी सी साँस भर बीच बीच में पलकों को झपकता देता।
कुछ देर युँ ही बीतते चले गए। आख़िर, चुप्पी को तोड़ते हुए नदी ने बादल से कहा – ऐ बादल तुम तो बंजारे हो और हवा के संग बहते हो। सुना है तुमने पहाड़ों से मरुस्थल तक की यात्रा की है। क्या तुमने कभी सागर को देखा है? कैसा दिखता है वो? क्या उसका आकार बहुत विशाल है? क्या उसका कोई ओर-छोर दिखाई नहीं पड़ता? क्या उसमें संसार की सभी नदियाँ समा सकती हैं? क्या उसके आगे मेरा अस्तित्व बौना सा है? और हाँ मेरे जैसी इतनी सारी नदियों का प्रेम पा कर भी वह इतना खारा क्यूँ है?
इतने सारे सवालों को एक साथ सुन बादल धीमे से मुस्कुरा दिया। एक लम्बी सी साँस छोड़ी जिससे हम्म की ध्वनि प्रकट हुई।
बादल ने नज़रें ऊपर उठाई और सोच भरी मुद्रा में दूर कहीं ताकने लगा।
नदी ने भी उस तरफ़ देखना चाहा जिस तरफ़ बादल देख रहा था किंतु उसे कुछ दिखाई ना पड़ा। सामने तो केवल रिक्त आसमान है। तो यह बादल क्या देख रहा है? क्या अपनी ऊँचाई से वह दूर समुंदर तक देख सकता है?
कुछ पल बाद, बादल ने चुप्पी तोड़ी और बोला – पहले यह बताओ कि तुम इस तरह यहाँ ठहरी हुई क्यूँ हो? जितना मैं तुम्हें देख और समझ पा रहा हूँ, तुम एक नदी हो और अभी जीवन के कुछ ही पड़ावों तक पहुँची हो। फिर यहाँ ठहरी सी क्यूँ खड़ी हो?
नदी चुप हो गई। उसने पलकें झुकाई और फिर अपनी सोच के तल में खो गई।
बादल अब भाँप गया कि नदी कई संकोचों में डूब बहना भूल गई है। जीवन के ऐसे संकोच भरे कुछ मोड़ों से वह खुद भी तो गुज़र चुका था जब पहले से संयोजित जीवन के उद्देश्य धराशाई हो गए थे और आगे की यात्रा उसे निरर्थक लगने लगी थी। जीवन के इन मोड़ों से गुज़र कर वह जान चुका था कि जीवन का कोई एक उद्देश्य नहीं होता और ना ही किसी लक्ष्य को पा लेना ही जीवन का उद्देश्य है। वर्षों की उसकी यात्रा ने उसे सिखा दिया था कि जीवन का असली सुख तो आगे बढ़ते रहने में है। अगर लक्ष्य की प्राप्ति हो भी जाए तो भी आगे बढ़ते रहना होता है क्यूँकि रुकना तो अंत है, यात्रा का ही नहीं बल्कि जीवन का भी। जब कभी हम एक उद्देश्य को पा लेते हैं तो जीवन के अगले किसी मोड़ पर दूसरा उद्देश्य कोई दूसरा लक्ष्य हमारा इंतज़ार कर रहा होता है। इसी सिद्धांत को अपन, बादल आधी पृथ्वी का चक्कर लगा चुका था मगर अब तक पूरी तरह बरसा नहीं था। जहां जाता वहाँ से कुछ बूँदें बटोर लेता और जब कभी पृथ्वी के किसी सूखे हिस्से को देखता तो कुछ बूँदें उसमें से बरस जाती। खुद में से कम होती ये बूँदें उसे ज़रा भी विचलित नहीं करतीं। वह जानता था कि आगे किसी मोड़ पर उसे कुछ और बूँदें मिल जाएँगीं। लेना देना, खोना पाना, मिलना बिछड़ना यह सब तो केवल यात्रा के पड़ाव हैं। वह ना तो पाने की ख़ुशी मनाता ना ही खोने का ग़म। मिलना बिछड़ना उसे ऐसे प्रतीत होते जैसे साँस खींचना और छोड़ना।
किंतु यह सब इस नदी को समझाना मुमकिन ना था। किसी के समझाने से कहाँ कभी कोई समझ पाया है। जवाब तो हमारे भीतर ही होते हैं किंतु हम उन्हें स्वीकारते नहीं। हम जब तक किसी ख़ुशी को खुद पा ना लें ना लें तब तक उसके एहसास को समझ नहीं पाते और जब तक किसी को खो ना दें तब तक उसका महत्तव नहीं जान पाते। वह यह भी जानता था कि हमारी मुश्किलों को कोई दूसरा आसान नहीं कर सकता ना ही हमारे सवालों का सही जवाब दे सकता है। वह तो केवल अनुमान लगा सकता था नदी की दुविधाओं का, असल दुविधा तो उसकी सोच से भी परे होंगी जिन्हें वह जी रही है। बादल के जवाब तो उसके खुद के परिप्रेक्ष्य मात्र होंगे। नदी तो खुद अपने भीतर हर सवाल का जवाब लिए फिर रही है। उसे तो केवल नदी को खुद के भीतर तलाशना सिखाना होगा।
कुछ सोच विचार कर, बादल नदी से कहता है – मैं तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दे तो दूँ किंतु एक मुश्किल है।
नदी की भोंहें ऊपर उठ जाती हैं और वह बादल को प्रश्न चिन्ह नज़रों से देखती है।
बादल मंद मुस्कान को होंठों पर सजा कहता है – मैंमुश्किल यह है कि मैं एक जगह ज़्यादा देर ठहर नहीं सकता।
वैसे भी तुम्हाही चित की पारदर्शिता मुझे कुछ देर से यहाँ रोके हुए है तो अब मुझे आगे बढ़ना होगा।
नदी ने इतराते हुए तपाक से उत्तर दिया। अरे, तो मैं कौनसा एक जगह ठहरी हुई हूँ! मेरा तो अस्तित्व ही है आगे बहते रहना। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नदी कभी रुक नहीं सकती ? वो तो मैं यहाँ बस थोड़ी देर के विश्राम के लिए रुकी थी ताकि आगे के रास्ते के लिये खुद को तैय्यार कर लूँ। अभी तो मुझे बहुत दूर तक जाना है।
बादल ने चहकते हुए कहा – अरे वाह! यह तो बहुत अच्छी बात है। तो चलो आगे बढ़ते बढ़ते बात करते हैं। मैं नील गगन में उड़ता रहूँगा और तुम हरी जमीं पर मेरे संग संग चलती रहना। यह कह कर बादल आगे बढ़ चला।
नदी ने एक बार फिर अपनी चाल पकड़ी और वह भी आगे की ओर बढ़ चली।
नदी और बादल अब साथ साथ बह चले थे। साथ साथ मगर ख़ामोश।
कुछ देर यूँ ही खामोशी से आगे बढ़ने के बाद, बादल ने नदी की ओर देखे बिना कहा – एक बात तो बतलाओ, तुम सागर के बारे में इतना जानना क्यूँ चाहती हो?
नदी ने धीमे से कहा क्यूँकि समुन्दर ही मेरी मंज़िल है।
मंज़िल!! हम्म तो मंज़िल को पाने के बाद क्या?
ठहर जाऊँगी।
ठहर जाओगी? मतलब सफ़र का अंत?
तो क्या मंज़िल के आगे भी कुछ होता है भला?
क्यूँ नहीं होता? होता है ना।
क्या होता है मंज़िल के बाद?
मंजींल के बाद होता है आगे का सफ़र और एक और मंज़िल, एक और सफ़र और फिर मंज़िलों का कारवाँ।
नदी की आँखों में चमक आ गई। वह चहकते हुए बोली तो क्या सागर के आगे भी ज़ाया जा सकता है?
क्यूँ नहीं जाया जा सकता? सागर कौनसा खुद में अनंत है? वह भी तो जाकर महासागर से मिलता है और फिर एक महासागर दूसरे महा सागर से। प्यारी नदी, अगर कुछ अनंत है तो वह है ज़िंदगी का सफ़र बाक़ी सब तो बस पड़ाव हैं।
नदी ने एक सोच भरे लहज़े में कहा – अच्छाऽऽऽऽऽऽ
दोनो फिर कुछ देर चुपचात बहते रहे। बादल हवा के संग संग और नदी ज़मीन के संग। नदी अपनी सोच में डूबी हुई सी और बादल कुछ गुनगुनाता हुआ सा। बीच बीच में दोनों थोड़ा दूर हो जाते और आगे किसी मोड़ पर फिर क़रीब आ जाते, एक दूसरे को देखते और मुस्कुरा भर देते। बादल अपनी यात्राओं की कुछ बातें बताता और नदी चुपचाप इन क़िस्सों को सुनती रहती। बादल की यात्राओं के ये क़िस्से सुन कर नदी भी प्रोत्साहित होने लगी थी अपने सफ़र में आगे आने वाले पड़ावों के लिये। दो अकेले राहगीरों का साथ चलने और बातचीत का सिलसिला चल पड़ा था। युँ तो दोनो अपने अपने रास्ते पर चल रहे थे किंतु इस बात से अनफ़िज्ञ कि उनके रास्ते अलग होकर भी वे लगभग साथ ही चल रहे थे।
बहते बहते अगर नदी आगे निकल जाती तो बादल दौड़ कर उसेक क़रीब पहुँच जाता और अगर हवा का झौंका बादल को दूसरी तरफ़ उड़ा ले जाता तो बादल को क़रीब ना पा नदी का मन व्याकुल हो जाता। कुछ पल का साथ अब कई पहर से होता हुआ कई दिनों में बदल गया था। नदी बादल के गुनगुनाने पर थिरकती और बादल नदी की लहरों के संगीत पर उछलता कूदता। बादल अब कुछ नीचे की ओर उड़ने लगा था और नदी सतह से ऊपर उठ कर बहने लगी थी। दिनों के बीतने के साथ साथ, दोनो एक दूसरे के बेहद क़रीब होते ज़ा रहे थे। मगर दोनो में से कोई आने वाले वक्त की बात ना करता।
दोनों एकदूसरे से कहते कुछ नहीं मगर भीतर ही एक दूसरे से प्रेम करने लगे थे। एक सरल, सादा और निसवार्थ प्रेम था ये। दोनो में से कोई भी बदले में दूसरे से ना कुछ माँगता ना कोई चाहत रखता था। इस प्रेम में ना बंदिशें थीं ना अपेक्षायें।
दोनो ही बस वक्त के साथ बहे ज़ा रहे थे इस बात से अनभिज्ञ कि उत्पत्ति के पूर्व दोनो एक दूसरे में ही लीन थे। दोनो का जन्म पहाड़ कीचोटी पर वर्षों से जमे एक विशाल हिमखंड से हुआ था जो सूरज की तपिश से अपने 2 खंडों में बंट गया था। 1 खंड को नीले गगन नेइतना लुभाया कि वो हवा की उँगली पकड़ ऊपर उड़ चला और दूसरे कण को हरी धरती ने इस कदर लुभाया कि वह गृतवाकार्शन केकंधे पर बैठ बह चली धरती की ओर।
अपने पूर्व जन्म से अनजान ये दो यात्री आज फिर आ मिले थे, वाष्प और तरल के रूप में। बादल और नदी के रूप में।
पूर्णिमा की एक रात बादल की नज़र नदी पर पड़ी तो उसने पाया कि नदी चाँदनी में नहाई चाँदी सी चमक रही है और चाँद नदी की सतह पर पूरी रात समकीली बिंदी सा चमकता रहा। कुछ रातें और बीत गयीं और अमावस एक रात बादल ने देखा कि असंख्य तारे नदी के एक छोर से निकल क्षितिज पर होते हुए आसमान में चढ़ते चले आ रहे थे। आसमान का प्रतिबिम्ब शांत बहती नदी की सतह पर स्पष्ट दिख रहा था। ऐसा प्रतीत होता था जैसे अनगिनत तारे नदी के भीतर समा गए हों। यह तय कर पाना कठिन था कि तारे नदी में तैर रहे हैं या नदी ही तारों से बनी है। नदी की इस ख़ूबसूरती को देख बादल मंत्रमुग्ध सा रह गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पूरा ब्रह्मांड नदी में बसता है। रात का अंधेरा छँटा तो उगते सूरज की सुनहरी रौशनी में नदी सोने सी दमकने लगी। तारों से सजी ख़ूबसूरती अब सुनहरी किरणों में लिपट और खूबसूरत हो गयी थी।
नदी की इस ख़ूबसूरती को देख बादल का मन विचलित हो उठा, उसका जी चाहा की ज़ोरों से बरस जाए और जल से लबालब इस नदी को अपने प्रेम के जल से भीगा दे। बादल नदी के और क़रीब उतर आता है। बादल को अपने इतना क़रीब पा नदी ठंडी पड़ जाती है। जिस पल का वो कब से इंतज़ार कर रही थी वो पल बस आ ही गया है। उसके मन में बसा बादल उसके तन को छूने ही वाला है। अगले ही पल में बादल उसके हर अंग को छू लेगा और वह बादल की हो जाएगी। वह बादल के आलिंगन के लिए व्याकुल हो उठती है और आने वाले पल को सोच आँखें बैंड कर लेती है।
मगर नदी के क़रीब पहुँचते ही बादल को यह क्या हो गया?
पलक झपकते ही बादल केवल धुँध बनकर रह जाता है। वो हाथ बढ़ाता है तो पाता है कि उसका हाथ वहाँ है ही नहीं। जिन होठों से वह नदी को चूमना चाहता था वे होंठ तो वहाँ रहे ही नहीं। बल्कि नदी की सतह पर झलकता उसका चेहरा भी अब वहाँ दिखाई नहीं पड़ता।
बादल घबरा जाता है और तुरंत नदी से दूर हो ऊपर उठने लगता है।
नदी आँखें खोलती है तो बादल को अपने क़रीब ना पा बेचैन हो उठती है। बादल को दूर जाता देख वह अपनी लहर रूपी बाहों को उठा बादल को थाम लेना चाहती है किंतु बादल तो अब बादल ही नहीं रहा। उसकी बाहें जितना उसे छूना चाहती हैं उतना ही उसे खोने लगतीहै।
पल भर में दोनो एक दूसरे से दूर हो जाते हैं।
बादल का सम्मोहन टूट जाता है। उसके कानों में पहाड़ों की वो बात गूंजने लगती है कि उसका जन्म दूसरों के लिये हुआ है, उसे जगह जगह घूम कर जीवों की प्यास बुझानी है। वह अकेले जीने के लिये बना है। वह चाहकर भी किसी का साथ आजीवन ना दे पाएगा ना ही पा सकेगा।
उसे अपना वर्षों पहले लिया एकागी जीवन व्याप्त कर निरंतर यात्रा करते रहने का प्रण भी स्मरण हो आता है।
ठीक उसी पल बादल का दिमाग़ उसके भीतर से निकल कर आसमान की ऊँचाइयों पर जा पहुँचता है और उससे चीख चीख कर कहने लगता है –
तुम दोनो की तो मंज़िल ही अलग है। नदी को सागर की ओर जाना है और तुझे सूखी बंजर ज़मीनों की ओर। तुझे तो अभी कई मरुस्थलों में जल बाँटना है।
क्या नदी इन सूखी बंजर ज़मीनों पर चल सकेगी? क्या वह सच में अपने प्रेम के स्वार्थ में नदी को ऐसे दुर्गम पथों पर ले जाएगा?
और अगर नहीं ले गया तो क्या नदी उसके लौट आने की प्रतीक्षा करेगी?
क्या तब तक नदी अपनी मंज़िल, सागर की ओर नहीं बढ़ जाएगी?
अगर नदी प्रतीक्षा कर भी ले तो क्या वह यह सुनिश्चित कर सकता है कि इन जटिल खुश्क परिस्थियों में वह खुद में वापस लौटने युक्त नमी बचा पाएगा?
अगर उसने मार्ग में ही दम तोड़ दिया तो क्या नदी उम्र भर उसके लिए यहाँ खड़ी तड़पती नहीं रह जाएगी?
अगर तु नदी के प्रेम में पड़ आज यहाँ बरस कर खुद को सूखा देगा तो उन मरुस्थलों का क्या जो सूखते तड़पते तेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, उनकी प्यास कौन बुझाएगा?
क्या तु प्रेम में स्वार्थी बन अपने जन्म के मक़सद को ही भूल जाएगा?
हर सवाल के जवाब में बादल का मन चीख उठता – नहीं। नहीं। नहीं नहीं नहीं।।।।।।
पृथ्वी पर कुछ पलों के लिये अंधेरा छा जाता है।
बादल नदी से प्रेम करने लगा था और जानता था कि नदी भी बादल को उतना ही चाहती है। यह ख़याल कि वह सदा नदी के क़रीब नहीं रह सकता, बादल को व्याकुल कर देता है और उसके सीने में बड़े ज़ोर का दर्द उठता है।
बादल इन सवालों के जवाबों के बारे में जितना सोचता है, उसके सीने का दर्द और बढ़ता चला जाता है। इस दर्द से बादल का सीना फट पड़ता है।
उसके अंदर से एक चिंगारी निकल पृथ्वी की सतह पर जा गिरती है।
पृथ्वी की सतह पर खड़ा एक हरा भरा पेड़ धूँ धूँ करके जल उठता है और आसमान बादल की कर्राह से गूंज उठता है।
ये सब देख नदी उफन पड़ती है। उसकी लहरें बलशाली हुए जा रही हैं। अपने चित से विपरीत वह एक ध्वंसात्मक रूप ले लेती है।
केवल आवाज़ें ही सुनाई पड़ती हैं। बादल के गरजने की और नदी की लहरों के ऊपर उठने की।
इसी बीच बादल के फटे सीने से दर्द बरस पड़ता है। धरती एक ऐसी वर्षा देखती है जो उसने ना कभी देखी थी ना ही कभी सुनी थी। यह कह पाना कठिन है की यह वर्ष बादल के अश्रु हैं, उसका प्रेम है या उसका प्रतिकार।
बादल और नदी के इस विरह देखने पवन तेज़ गति से वहाँ पहुँच जाता है। चारों तरफ़ कोहराम सा मच जाता है। कहीं कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
पर क्या बादल बरस बरस का इतना ख़ाली हो सकता है की पूर्णतः नदी में समा जाए?
क्या नदी बादल के प्रेम की तपिश में भाप बन आसमान की ओर उठ खुद को मिटा सकती है?
क्या प्रेम इतना बलशाली होगा?
क्या प्रेम इतना स्वार्थी होगा?