आह! कितनी अच्छी सुबह है ये। एक शांत सुबह। रविवार की सुबह। ना सड़क से मोटर बाइक की घूँ घूँ ना दौड़ते भागते पड़ोसियों के कदमों की टप टप। बस खामोशी में, गुलमोहर की टहनियों पर गुनगुनाती सी हवा और उसके संग चहकती ये छोटी चिड़िया। इसे कैसे पता चलता है कि आज रविवार की सुबह है? या शायद यह बोलती तो रोज़ाना होगी मगर सुनाई सिर्फ़ रविवार की ख़ामोश सुबह को ही देती है।
रविवार सबको पसंद होता है। रेलगाड़ी सी निरंतर चलती ज़िंदगी का एक छोटा सा स्टेशन, कुछ देर ठहरो, आलस की खिड़की से झाँक कर एक नज़र बीते हुए स्टेशनों पर नज़र डालो और लम्बी सी अंगड़ाई के साथ हफ़्ते भर की थकान मिटा लो। ना दफ़्तर की दौड़ ना कमाने की होड़। सुस्ताते हुए बिस्तर पर ही पूरा दिन काट लो। छुट्टी का भी अलग ही मज़ा होता होगा ना? होगा! हाँ, मेरे लिये तो अब ये सब काल्पनिक सा ही है। पुरानी यादें अक्सर पिछले जन्म की बातों जैसी लगती है, कल्पना से भरी। एक सुखदाई कल्पना। मैं अब ज़िंदगी के इस छोटे से सुख का लुत्फ़ तो नहीं उठा सकती मगर इसकी कल्पना को तो जी ही सकती हूँ।
ख़ैर, मेरे लिये तो अब हर दिन बराबर है, क्या सोमवार और क्या रविवार। आख़िर मैं एक ग्रहणी जो ठहरी। लोगों के अनुसार मेरा हर दिन रविवार है और असल ज़िंदगी में हर दिन सोमवार। मेरी मेहनत का मेहनताना बैंक के खाते में नहीं आता इसलिए उसका कोई मोल आंका नहीं जाता। मेरा श्रम तो बाल श्रम में भी नहीं आता तो अतःव इसे ग़लत भी नहीं माना जाता।
उफ़्फ़ मैं भी सुबह सुबह किन फ़ालतू की सोच में पड़ गई। यह दिमाग़ भी ना! हर वक्त परिस्थितियों को तौलने और बीते वक्त में विचरण करने में लगा रहता है। रविवार चाहे छुट्टी दे ना दे, रविवार की सुबह तो दे ही जाता है। मेरी सुबह। एक फ़ुरसत भरी सुबह। ना खाने की मेज़ से मक्खन के लिए मुझे पराठा पुकारता है ना गीला बाथरूम, तौलिया प्लीज़ चिल्लाता है। ना हर दिन मेज़ पर उसी जगह रखा बटुआ खोता है, ना टिफ़िन का डिब्बा मेरी झुँझलाहट समेटता है। वह सुबह जब मैं किसी की माँ, बीवी, बहू या भाभी नहीं होती, बल्कि कुसुम होती हूँ। सिर्फ़ कुसुम। वो सुबह जब मेरा नाम अपना अस्तित्व फिर से पा जाता है।
इससे पहले कि बाक़ी लोग उठे और फ़रमाइशों का दौर एक बार फिर शुरू हो, एक कप अपनी वाली चाय बना लेती हूँ। मिश्री चाय। कितनी पसंद थी ना बचपन से मुझे ये। माँ कहती थी मैं चाय में शक्कर डालती हूँ या शक्कर में चाय। हाहाहा माँ भी ना! खुद ही कहती थीं की मैं बिल्कुल उनके जैसी हूँ और फिर खुद ही इन चीजों पर टोकती भी रहती थीं। पर माँ के टोकने का असर मुझपर कभी ना पड़ा। उम्र के साथ शक्कर बढ़ती गई और मेरा मिश्री चाय का प्यार भी। लेकिन एक दिन अपनी बाक़ी की छोटी छोटी ख़ुशियों के साथ मुझे इस चाय को भी त्याग देना पड़ा। कई बार लोगों का एक बार टोकना ही हमारी वर्षों पुरानी आदत को बदल देता है। प्रतीक का मेरे चेहरे और कमर के भारिपन पर टोकना कुछ ऐसा ही था। जिसने मीठे के प्रती मेरे लगाव को एक झटके में ख़त्म कर दिया। अब मिश्री चाय मेरी एक ऐसी सहेली बन कर रह गई है, जिससे मैं चोरी छिपे रविवार की सुबह मिल लिया करती हूँ अपनी तीसरी मन पसंद सहेली आइने के साथ।
वाह! क्या ख़ुशबू है। ना जाने क्यूँ आइने के सामने बैठ कर चाय का स्वाद बढ़ जाता है। पत्ति, लौंग, इलायची और अदरक तो सब बराबर ही डलता है फिर ये अलग स्वाद कहाँ से आता है? क्या ये शक्कर का स्वाद है? या आइने का? या शायद ये रविवार की सुबह का स्वाद है। हाँ वही है शायद। रविवार को ही आता है चाय में यह स्वाद। ओह शायद ये फ़ुरसत का स्वाद होगा। आज से मैं अपनी चाय को मिश्री चाय नहीं फ़ुरसत चाय कहा करूँगी। हाँ! यही मुनासिब नाम है इसका।
(आइने से यह कहते हुए कुसुम ने अपनी गोल, करौंदिया बिंदी को उसकी जगह पर दुरुस्त किया और चिड़िया के संग गुनगुनाने लगी)
समाप्त
Apne aap se kiya gaya conversation apne aap mein kitna sundar hota hai ! Beautiful 🙂
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very good article
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