पहाड़ से शहर को चिट्ठी

इस बार पर्वतारोहण से लौट कर मैं चित्त होकर ऐसा सोया की नींद ने दिन और रात का अंतर भूला दिया। बीते 2 सप्ताह की यात्रा काफ़ी लंबी, ठंडी और थका देने वाली रही थी। 18 घंटे की नींद के बाद आज तड़के जागा तो लगा जैसे मैं सदियों से सो रहा था और मेरे आँख खोलने तक दुनिया बदल चुकी है। शरीर की थकान नदारद थी किंतु मन पहले से अधिक सुस्त व विचलित था। दिल में ख़याल आया कि काग़ज़ कलम उठाऊँ और यात्रा के वृतांत से लेकर मेरे एकांत का हर वो हिस्सा तुम्हें लिख भेजूँ जो मैं तुमसे छिपाए घूम रहा था।

युँ तो बीते वर्ष, तुम्हें लिखी सभी चिट्ठियाँ मैं उस झील को सौंप चुका हूँ, जो हमारी मुलाक़ात की गवाह थी। नहीं जानता कि तुम्हारे शहर की झील ने उन चिट्ठियों में समाय एहसासों को खुद में सोख लिया या उन चिट्ठियों के काग़ज़ को गला उसमें लिखे शब्दों को आज़ाद कर दिया? अगर ऐसा हुआ होगा तो झील ने एक ठंडी आह भरी होगी और झील से उठती वो ठंडी हवा का झोंका वायुमंडल में होता हुआ एहसास बन  तुम तक पहुँच गया होगा। झील से उस मुलाक़ात के बाद मैं चिट्ठियाँ लिखना बंद कर चुका हूँ। एक निश्चय किया था कि जब तुम्हें ख़त भेज ही नहीं सकता तो लिखूँ क्यूँ? मगर किसी लम्बी यात्रा से लौट आने के बाद दिल में एक वेग सा उठता है, तुम्हें सब लिख कर कह देने का। चिट्ठी ना लिखने के इरादों की दीवार का सीमेंट अपने अंदर की नमी को सुखाता हुआ, अब भी कच्चे पक्के के बीच कहीं जूझ रहा है। तुम्हें सब लिख देने की इच्छा से लड़ता हुआ बेचैन मन को लिये मैं बगीचे की ओर चल पड़ा। 

अक्टूबर का आख़िरी हफ़्ता है और ठंड परवान चढ़ चली है। पेड़ अपनी जड़ों को बचाने के लिये, रही सही नमी को अपने भीतर खींच रहे हैं और इन रूखे पेड़ों से नमी ना पाकर पत्ते इनका साथ छोड़ चले हैं। इन्हें देखकर समाज के वे सभी बूढ़े याद आ जाते हैं जो खुद की बची खुचि नमी को भीतर सहेजते हुए जीवन के पतझड़ में धीरे धीरे अकेले होते चले जाते हैं। कुछ एक बहादुर चिड़ियाओं को छोड़, बाक़ी अभी अपने घोंसले में ही सुस्ता रही थीं। घोंसले से थोड़ा सिर निकाल झांक कर मुझे इतने तड़के बाहर देख हंस रही होंगी शायद। कहती होंगी नादान सिरफिरा इंसान, ना जाने वक्त बेवक्त क्यूँ बाहर निकल आता है। या शायद कोस रही होंगी मुझे की ठंड में बाहर निकल इनके बच्चों को भी बिगाड़ रहा है। उनके सिर थपथपा कर कह रही होंगी कि  सो जाओ, अभी तो सूरज भी नहीं जागा है। ये मनुष्य तो पागल है कभी कभी तो रात बिरात भी बाहर निकल आता है। घोसलों में उछलते कूदते कुछ एक बच्चों की उत्साहित चीं-चीं और माँ की धीमी डाँट मैं सुन पा रहा था। कितना सुखद है सर्दी की सुबह का एहसास। इंसानी दुनिया विलुप्त हो जाती है और कुछ देर के लिए पंछियों की दुनिया पृथ्वी पर अधिकार वापस पा लेती है।

कदमों की चहलक़दमी के बीच सूखे पत्तों की चर चर ने ध्यान फिर उन चिट्ठियों की ओर ला दिया जिनसे भाग कर मैं कमरे से बगीचे तक आ गया था। कितने पसंद थे ना तुम्हें ये सूखे पत्ते। एक बार भोजपत्र के जंगलों से तुम दसियों पत्ते बीन लाई थीं। कहती थी, इनको सी कर इनकी किताब बनाऊँगी और उस किताब में हम दोनों की कहानी लिखूँगी। हा हा हा, तुम और तुम्हारी मासूम बचकानियाँ। कुछ देर चल, मन कहीं बैठ कर सुस्ताने को किया। तभी हवा का एक झौंका चला और एक पत्ता अपनी यादों का पीलापन लिये मेरे कदमों से आ लिपटा। पत्ते को ज़मीन से उठाने के लिये मैं नीचे झुका तो ऐनक नाक पर थोड़ा नीचे सरक गई, जैसे मुझसे पहले वो पत्ते को थोड़ा और क़रीब से देख लेना चाहती हो। पत्ता हाथ में लिये मैं ज़मीन पर गिरे आख़िरी साँस लेते एक बीमार पेड़ की पीठ पर बैठ गया और आदतन पत्ते को उलट पलट कर देखने लगा। मुझे फूल और पत्तों का पिछला हिस्सा बेहद पसंद है। दुनिया से छिपा, धरती को निहारता ये हिस्सा मुझे अपने जैसा ही लगता है। मगर इस बार इस पत्ते में मुझे तुम्हारी झलक दिखी। पीले रंग के बीच लाल रंग झांक रहा था जैसे मेरे छूने से ये लाज से झेंप रहा हो। तुम्हें अपने इतने क़रीब पा मुझसे रहा नहीं गया और शब्दों का बांध टूट पड़ा। मुझे युँ पत्ते बतियाता देख सूरज भी पहाड़ी के पीछे से बाहर निकल आया, मानो इस पल का गवाह बन जाना चाहता हो। मैंने नज़रें उठा कर सूरज की तरफ़ देखा तो दाहिनी आँख से 2 इंच नीचे चेहरे पर धूप की गरमाहट महसूस हुई जैसे तुमने छू लिया हो और कह रही हो, रुक क्यूँ गए, कहते रहो। सर्दियों की धीमी नरम धूप की तरह ही थी तुम्हारी छुअन। चेहरे पर पड़ती धूप के सुकून और तुम्हारे इतने क़रीब हो कर भी कोसों दूर होने की बेचैनी के बीच मैंने पत्ते से वह सब कह दिया जो मैं कभी शब्दों में भी व्यतक ना कर पाया था। ज्यूँ ज्यूँ मैं पत्ते से अपने ख़याल व्यक्त किए जा रहा था, पत्ता पीलापन छोड़ लाल हुआ जा रहा था। उस पर पड़ी हल्की लकीरें मेरी आँखों के बग़ल की झुर्रियों सी और गहरी हो चली थीं। 

दिल में दबा मैं सब कुछ तो तुम्हें कभी कह ना सका मगर इस पत्ते को आज गाँव के बग़ल से होती हुई पहाड़ से शहर की ओर बहती नदी में बहा दे रहा हूँ। शायद तुम अब भी शाम ढले यमुना किनारे डूबते सूरज को देखने जाती होगी। किसी शाम जब किनारे पर नदी के पानी पैर ड़ुबाए बैठी होगी तो मेरी ये सूखी चिट्ठी तुम्हारे पैरों से आ लगेगी। उम्मीद है कि तुम पानी की सतह पर तैरते सूखे पत्ते अब भी बटोरती हो और इस बार मेरे एहसास शब्द बन कर तुम तक पहुँच ही जाएँगे। 

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Published by HimalayanDrives

While living in a city, I often escaped to the mountains to keep a balance within me. These short visits to the Himalayas and a journey of 100 days in Himachal brought me closer to nature and I started listening to the whispers of nature. This page is about converting those whispers to words and carry nature's message for all. I mostly travel solo but sometimes organise trekking camps for people who want to reach closer to nature. Join me for these trips and explore the unexplored.

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