तो चलो,
प्रेम की एक नई परिभाषा रचते हैं,
बहती नदी सा आज़ाद,
मगर पहाड़ सा अचल,
प्रेम करते हैं,
तुम नदी,
मैं पहाड़,
तुम जल,
मैं पत्थर,
तुम वादियाँ – वादियाँ बहती रहना,
मैं हिमखंडों सा तुम में समाया रहूँ,
मुझसे निकल एक सँकरी जल धारा सी,
दुनिया में पहुँच,
जल का एक विशाल श्रोत बन जाना,
मैं निहारता रहूँ अपनी ऊँचाइयों से दूर तक ,
तुम कलरव करती बहती रहना,
जो खारा समुंदर तुम्हें ख़ुद में समेटना चाहे,
तो भाप बन छू मंतर हो जाना,
फिर ले रूप एक नन्हे बादल का,
मीलों दूर मुझ तक लौट आना,
बन कर सफ़ेद फ़ोहे सी बर्फ,
मेरे माथे पर सज जाना,
ढक ना जाऊँ मैं तुमसे जब तक,
यूँ ही मुझ पर बरसती रहना,
तो चलो,
प्रेम की एक नई परिभाषा रचते हैं,
बहती नदी सा आज़ाद,
मगर पहाड़ सा अचल,
प्रेम करते हैं।
