बिन परों का परिंदा

क्या आपने कभी धरती को ऊपर से देखा है?  नहीं नहीं, मैं विमान यात्रा वाली ऊँचाई की बात नहीं कर रहा। जब आप विमान में ऊपर उठते हैं तो क़रीब से आपको धरती नहीं केवल कंक्रीट के ढाँचे दिखते हैं और फिर आप पलक झपकते ही इतना ऊपर उठ जाते हैं कि धरती से दूरContinue reading “बिन परों का परिंदा”

मैं पेड़ हूँ 

पंछियों का घरौंदा,
तो पथिकों का आरामगाह,
बूढ़ों का साथी,
तो बच्चों का सारथी,
ना जाने मेरे कितने ही नाम हैं,
पर मैं तो केवल एक पेड़ हूँ,
एक बूढ़ा तनहा, सिसकता पेड़।

सफलता या सजगता?

मैं और आप हर दिन बदल रहे हैं। हम सभी आगे की ओर बढ़ रहे हैं। हर देश प्रगति की ओर अग्रसर है। मानव धरती से ऊँचा उठ, चाँद से होता हुआ ब्रहस्पति को पार कर अरुण (Uranus) ग्रह तक जा पहुँचा है। मगर इस यात्रा का परिणाम क्या है?  पैदा होने से जीवन के अंतContinue reading “सफलता या सजगता?”

पहाड़ से शहर को चिट्ठी

दिल में दबा मैं सब कुछ तो तुम्हें कभी कह ना सका मगर इस पत्ते को आज गाँव के बग़ल से होती हुई पहाड़ से शहर की ओर बहती नदी में बहा दे रहा हूँ। शायद तुम अब भी शाम ढले यमुना किनारे डूबते सूरज को देखने जाती होगी। किसी शाम जब किनारे पर नदी के पानी पैर ड़ुबाए बैठी होगी तो मेरी ये सूखी चिट्ठी तुम्हारे पैरों से आ लगेगी। उम्मीद है…

यादों का हाथ

तीसरे, से चौथे आयाम को जोड़ मैं असल दुनिया और नींद की दुनिया के बीच कहीं झूलता हुआ सुबह का इंतज़ार करने लगा। ना जाने वो सपना था या हक़ीक़त मगर मुझे अपनी उँगलियों की नोक पर तुम्हारे छुअन की गर्माहट महसूस हुई, जैसे तुमने मेरी उँगलियों के सिरे पर अपनी उँगलियों  के सिरे  रख दिये हों। मेरा रोम रोम सिहर उठा। क्या किसी दूसरे आयाम में तुमने भी मेरी ओर हाथ बढ़ाया था?

तुम सच हो या कल्पना

अंधेरी रातों में,
चाँद बन जाती हो,
सर्द सुबहों में,
गर्म चाय सी लबों को छू जाती हो,
लम्बे सफ़र की दुपहरी में,
पेड़ की छाओं सी मिल जाती हो,
जो ढलने लगे ख़यालों का सूरज,
तो रंगो सी फैल जाती हो,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?

रविवार की सुबह

वाह! क्या ख़ुशबू है। ना जाने क्यूँ आइने के सामने बैठ कर चाय का स्वाद बढ़ जाता है। पत्ति, लौंग, इलायची और अदरक तो सब बराबर ही डलता है फिर ये अलग स्वाद कहाँ से आता है? क्या ये शक्कर का स्वाद है? या आइने का? या शायद ये रविवार की सुबह का स्वाद है।

बादल और नदी का प्रेम

बादल अपने ही ख़्यालों में खोया इस बात से अनभिज्ञ था कि नदी अब उसकी ओर ताक रही थी। नदी का मन हुआ की आवाज़ लगा कर बादल से पूछे – ऐ आवारा क्या टुकुर टुकुर ताक रहा है मेरी ओर? पहले कभी कोई नदी नहीं देखी क्या? मगर वह कुछ कह ना सकी, यूँ तो उसने कई बादल देखे थे किंतु यह बादल कुछ अलग सा प्रतीत हुआ। नदी को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे बादल कुछ उस सा ही है।

मेरी खिड़की

मेरे मन में ख़याल आता है कि अरे! मैं रंगों को छू सकता हूँ। मारे ख़ुशी के मैं सारे कपड़े उतार देता हूँ और अपने पूरे शरीर पर रंगों की धारियाँ को छूने लगता हूँ। मेरा रोम रोम सात रंगो की धारियों से भरा पड़ा है। मैं समझ नहीं पाता कि मैंने रंगों को ओढ़ लिया है या मैं खुद रंगों से बना हूँ। 

शब्दों का स्वाद

शब्द उबल उबल कर,
अंदर ही अंदर पकने लगते हैं,
शब्दों की सीटी बजने लगती है,
कभी छोले की मिठास सी कविता पकती है,
तो कभी राजमा की खट्टास सा छंद,
गाहे बगाहे कहानी की कोई तरकारी भी पक जाती है।