सुनो…
.
.
.
अरे! तुम्हारे मन ही मन “कहो” कहने का इंतज़ार कर रहा हूँ। तुम तो जानती ही हो मैं, तुम्हारे “कहो” के बिना कोई बात आगे नहीं बढ़ाता था।
.
.
तो अब सुनो। इसमें उस सुबह का ज़िक्र है जो कई काली रातों के बाद आई थी…
सुबह के ६ बजे हैं, आँख खुली तो नज़र तुम्हारे चेहरे पर पड़ी। शांत चेहरा, ना कोई तनाव ना मुस्कान। जैसे उफनते समंदर पर किसी ने पहरा लगा दिया हो कि देख समंदर, अंदर के तूफ़ान की झलक भी बहार दिखाई ना पड़े। समंदर ने आँख मूँदी और अपने भीतर के हर तूफ़ान को सतह पर शांति ओढ़ ली। मैंने कई बार तुम्हें सोते में मुस्कुराते और सोते चेहरे पर ग़ुस्से के भाव उभरते भी देखा है। ना जाने नींद में भी तुम्हारे भीतर क्या उछलता कूदता है। मगर उस सुबह तुम बेहद शांत थी।
यूँ तो हर सुबह उठते ही मेरा मन बेचैन हो उठता है। सोच के समुंदर में गोते खाता खाता पलक झपकते ही उदासी की चोटी तक पहुँच जाता है मगर उस सुबह, तुम्हें अपने क़रीब पा दिल में एक सुकून सा भर गया था। दिल और दिमाग़ ने आपस में युद्ध विराम का समझौता कर लिया था शायद।
कुछ देर तुम्हारे चेहरे को यूँ ही देखता रहा और फिर पलंग से उतर गया। देखा तुम्हारे पैर कंबल से बाहर निकले हुए हैं। बच्चों सी ही सोती हो तुम अब तक भी। कितनी बार समझाया था रात को कि देखो ये पहाड़ हैं, यहाँ ठंड और ख़ुशियाँ दिखें ना दिखे हर वक़्त आस पास ही होती हैं तो ख़ुद को ढक कर सोना। मगर तुम तो जैसे मेरी ना सुनने का बीड़ा लेकर ही उतरी हो इस धरती पर।
तुम्हें कंबल ओढ़ाया और खिड़की की और बढ़ गया। खिड़की के बाहर बर्फ से ढके पहाड़ मेरा इंतज़ार कर रहे थे। बीते कुछ सालों से हर सुबह आँख खोलकर सबसे पहले इन्हीं से मिलता रहा हूँ मैं। ये पहाड़ भी मेरा इंतज़ार करने लगे थे हर सुबह। किंतु उस सुबह का नज़ारा कुछ अलग था। खिड़की पर पहुँचा तो देखा – अरे! ये तो धुँध की चादर ओढ़ छिप गये हैं कहीं। शायद नाराज़ हो गये थे मुझसे। कह रहे होंगे की पहले तो शहर से जब भी आता था, अकेले आता था और पूरा वक़्त हमारे संग बिताता था। शहर के शोर की शिकायत, काली हवा की हिक़ारत और वहाँ की भीड़ की फ़ज़ीहत करते करते रात हो जाती थी। सुबह उठ हम फिर मिल बैठते उन्हीं क़िस्सों को आगे बढ़ाने। मगर इस बार किसको उठा लाये कि जबसे आये हो नज़र ही नहीं हटती उसके चेहरे से। हमारी ओर भी देखना भूल गये। रात के सन्नाटे में खिड़की से कान लगा सुन लिया होगा शायद इन्होंने हमारी साँसों को। मेरी खुसफुसाहट और तुम्हारी खिलखिलाहट को और अब नाराज़ हो धुँध की चादर ओढ़ सोये पड़े हैं। किसी मासूम रूठे बच्चे से। देख नहीं पाते ये मुझे किसी के क़रीब। इन्हें भी मुझसे मुहब्बत हो गई है। या शायद इन्हें भी आदत भर है मेरी। ख़ैर अब आदतों से दूर भागना छोड़ दिया है मैंने। जानता हूँ ये छूट जाती है। तुम्हारी भी तो छूट गई – मेरी आदत, मुझे चाहने की आदत। दिल किया कि तुम्हें नींद से जगा कर बताऊँ मैं कि देखो पहाड़ तुम्हें देख चिढ़ गए हैं ये। वो ज़रूर पहचान गये हैं तुम्हें। मेरे बताये बग़ैर ही।
मगर उस सुबह तुम्हें यह सब बताता तो तुम कहती अरुण ये पहाड़ हैं, पहाड़! पत्थर के निर्जीव पहाड़! जिनमें कोई भाव नहीं होता। यहाँ पहाड़ों के बीच अकेला रहता रहता मैं पागल हो रहा हूँ। तुम एक बार फिर रट लगाने लग जाती मुझे लौटा ले जाने की। मगर यह सच नहीं है। पहाड़ भी देखते, समझते और महसूस करते हैं। ज़ुबान नहीं है इनके पास किंतु ये सब सुन और समझ सकते हैं। सालों बातें की हैं मैंने इनके साथ, तुम्हारे बारे में सब पता है इन्हें, वो पहली मुलाक़ात, Hi hello से घंटों तक पहुँची बात, ढेरों रतजगी वाली रात, सफ़र से भरी शामें, चाय सी गुन गुनी सुबहें, चिड़ियों की चीं चीं सी नोंक झोंक और मेरे वो सभी जोक जिन्हें सुन तुम आम सी सड़ जाती और कहतीं निहायती घटिया हैं। मेरी खिड़की के पहाड़ ने यह सब सुना है और कुछ को तो ज़ुबानी याद भी कर लिया है। कुमकुम, पहाड़ केवल पत्थर नहीं हैं, एहसासों का ढेर हैं, ऐसे एहसास जिनका पार पाना मुश्किल है। शायद इसीलिए इनका नाम पहाड़ रख दिया गया है।
उस सुबह मैंने एक बार फिर से ख़ुद को तुम्हारे और पहाड़ के प्रेम के बीच पाया था। खिड़की के बाहर थे, धुँध से ढके मेरे प्रिय पहाड़ और भीतर कंबल तले तुम और दुविधा की ज़मीन पर खड़ा मैं। मुझे लगा जैसे मैं एक बार फिर पहाड़ों की ओर खिंचा जा रहा हूँ और तुमसे दूर जा रहा हूँ। यह ख़याल आते ही मैं झट से तुम तक पहुँच गया और तुमसे लिपट गया। यह तो याद होगा तुम्हें कि कैसे चौंक कर उठी थीं तुम और घबरा का पूछने लगीं कि क्या कोई सपना देखा मैंने। मैं तुमसे कह ना सका कि नहीं! सपना नहीं हक़ीक़त देखी। मैं बस चुपचाप तुमसे चिपटा रहा। जानता था कुछ घंटों तक सुकून का सूरज सिर चढ़ेगा और फिर ढल जाएगा एक लंबी अंधेरी रात में। ना जाने फिर कितने बरस इंतज़ार करना होगा तुम्हारे लौटने का। ना जाने इस बार वो इंतज़ार ख़त्म भी होगा या नहीं।
शाम ढली और अपना बैग बांध तुम आ खड़ी हुई मेरे सामने। विदा लेते वक़्त, ब्यास नदी जो जो कहती है धौलाधार से वो सब कह दिया तुम्हारी ख़ामोश आँखों ने। विदा करते वक़्त जो जो कहता है पहाड़ वो सब कह दिया मेरी सून्य नज़रों ने। मगर लब चुप ही रहे।
तुम्हारा
पहाड़ प्रेमी।
अगर आपने पिछली चार चिट्ठी नहीं पढ़ी हैं तो उनका लिंक नीचे दिये दे रहा हूँ।