तुम!
तुम सच हो या कल्पना?
ना कभी दिखाई देती हो,
ना कभी सुनाई,
मगर महसूस हर पल होती हो,
फिर चाहे शहर का शोर हो,
या पहाड़ की चोटी की खामोशी,
दौड़ता भागता जीवन का सफ़र हो,
या सुकून का ठहरा हुआ पल,
मैंने हर क्षण में तुम्हें अपने इर्द गिर्द पाया है,
मेरे कंधों पर सिर टिकाए,
कानों तले मेरी गलई को,
तुमने, अपनी धीमी गर्म साँसों से सहलाया है,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?
वादियों में गूंजती हो,
मगर आवाज़ पहचान में नहीं आती,
हर रात सपनों में आती हो,
मगर चेहरा नहीं दिखाती,
कभी बादलों में झलकती हो,
तो कभी बूँदों में खनकती,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?
अंधेरी रातों में,
चाँद बन जाती हो,
सर्द सुबहों में,
गर्म चाय सी लबों को छू जाती हो,
लम्बे सफ़र की दुपहरी में,
पेड़ की छाओं सी मिल जाती हो,
जो ढलने लगे ख़यालों का सूरज,
तो रंगो सी फैल जाती हो,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?
जो मैं बन जाऊँ देवदार,
तो किसी बेल सी लिपट जाती हो,
मन के सूखे मरुस्थल में,
नदी की नमी सी उतर आती हो,
जो हो मन उमड़ते घुमड़ते बादलों सा बेचैन,
तो झील सी सुकून बन जाती हो,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?
युँ तो, मैंने तुम्हें और तुमने मुझे छुआ है,
मैंने तुम्हें और तुमने मुझे चूमा है,
अपने अकेलेपन के पलों में,
कई बार तुम्हें जिया है,
यादों में दूर दूर तक फैली हो,
मगर धुंधली सी हो तुम,
हमेशा मेरे क़रीब हो
मगर मेरे संग नहीं हो तुम,
तुम!
तुम सच हो या कल्पना?