आज ये चिट्ठी हाथ में लिए तुम सोच रही होगी कि एक अरसे बाद याद आई मुझे । दिल में लिफ़ाफ़े को फाड़ कर फेंक देने का ख़याल भी आया होगा। पर जानती तो तुम भी हो कि यह सच नहीं है। सच तो ये है की मेरे हाथ और हृदय तो हर वक्त व्याकुल रहते हैं तुम्हें लिखने के लिए। आख़िर इन चिट्ठियों की कड़ी ही तो है जो तुम्हें और मुझे, हमें से जोड़ी हुई है। इस कड़ी को मैं कैसे टूटने दे सकता हूँ? पर कुदरत की तो रीत है कि कई अर्ध विरामों से ही सच्ची प्रीत है। फिर चाहे वो शाम और सुबह के बीच रात का अर्द्धविराम हो या पतझड़ और बसंत के बीच सर्द ऋतु का अर्ध विराम। पहाड़ों का बर्फ़ की चादर ओढ़ कर सो जाना और डाकिया चाचा का गाँव तक ना पहुँच पाना भी उसी का हिस्सा था। कुदरत का मेरी मुहब्बत पर अर्ध विराम।
लोग कहते हैं कि पहाड़ अचल-अमर हैं, पर नहीं जानते की मनुष्यों की सेवा में निरंतर खड़े खड़े पहाड़ भी अक्सर थक ज़ाया करते है और साल ख़त्म होते होते, एक मोटा सफ़ेद मख़मली ठंडा कंबल ओढ़ सो जाते हैं।जिस बर्फ़बारी को सैलानी, पहाड़ पर आने का मौक़ा मानते हैं, वही बर्फ़बारी यहाँ के बाशिंदों के लिए बंदिशें बन कर आती है। इनके जीवन को समझने और करीब से जानने के लिए मैं भारतीय सीमा पर बसे हिमालय की लटों में छुपे इस आख़िरी गाँव तक आ पहुँचने की जुगत में सड़क रास्ता भटक गई है शायद। 12 घर, 1 दुकान, 1 आश्रम और 62 लोगों के इस गाँव में ज़िंदगी साइकिल के पहिए सी घूमती है। ना इसके चलने की आवाज़ और ना ही मोटर गाड़ी सी तेज़ रफ़्तार। चलते चलते भी सब साफ़ साफ़ घटता हुआ देखा जा सकता है। यहाँ घरों में घड़ियाँ नहीं हैं, या यूँ कहो वक्त की सुइयों में यहाँ के इंसानों ने खुद को अभी तक बांधा नहीं है। यहाँ वक्त बस 4 हिस्सों में बँटा है, सूर्योदय, दिन, सूर्यास्त और रात। बर्फ़बारी के दिनों में यह अंतर केवल दिन और रात भर का रह जाता है। दिन की शुरुआत नारंगी सी चमकती हिमालय की चोटियों के साथ मीठी चाय से होती है और दिन हर वक़्त तंदूर पर चढ़ी केतली से निकलती भाप सा बीतता है तो रात बिना बताये ही बर्फ के कंबल सी चुपचाप चारों ओर पसर जाती है। सोने से पहले एक और मीठी चाय का स्वाद और फिर सन्नाटे को सुनता तारों भरा आसमान। तारीख़ें बदलती रहती हैं और जीवन साइकिल के पहिये सा एक ही ढर्रे में गोल गोल घूमता रहता है। बीते 3 महीने इनके साथ बिता मैं ख़ुद को बूढ़े बरगद सा महसूस करने लगा हूँ जिसके जीवन में समय का बदलना केवल उसकी दाढ़ी का बढ़ना मात्र ही होता है।
हाँ हाँ जानता हूँ तुम्हें बहुत पसंद है मेरी दाढ़ी और अब कहोगी की चिट्ठी के साथ कोई तस्वीर क्यूँ नहीं भेजी? तुम तो कहती थी कि मैं मन की आँखों से तुम्हें कभी भी कहीं भी देख सकती हूँ। तो बस मूँद लो अपनी आँखों को और देख लो इस बूढ़े बरगद को एक काठ कुनी के आँगन में खड़े आसमान को एकटक निहारते हुए।
जानता हूँ हर बार की तरह, ख़त का जवाब इस बार भी नहीं आएगा मगर हर ख़त की तरह इस बार भी मैं अपने सवाल भेज रहा हूँ।
कहो तुम कैसी हो? सुबह की सैर पर जाना शुरू किया या अब भी सुबह का ख़ालीपन बस अलसाई सी बिस्तर पर मेरी चाय का इंतज़ार करती काट देती हो? और फिर दफ़्तर के लिए देर हो जाने पर हड़बड़ा कर उठती होगी! है ना? उम्मीद है जल्द बाज़ी में टिफ़िन ले जाना तो नहीं भूलती होगी! शाम के सूरज में झलकता मेरा चेहरा धुंधला तो नहीं पड़ रहा? रात को किशोर कुमार की आवाज़ के संग मेरी याद भी तो चली आती होगी ना सिरहाने तक?
अच्छा अच्छा अब और कुछ नहीं पूछूँगा वरना ख़त का निचला हिस्सा तुम्हारे मोतियों से गीला हो जाएगा और काग़ज़ के इस टुकड़े को दोनो हाथों में भींच कहोगी देखो तुमने फिर रुला दिया मुझे। तो अब इस ख़त का अंत करता हूँ।
तुम्हारा
पहाड़ प्रेमी
Note :
काठ कुनी – पत्थर और लकड़ी का घर जिसमें सीमेंट के जोड़ की ज़रूरत नहीं पड़ती।
अगर आपने पहली तीन चिट्ठी नहीं पढ़ी हैं तो उनका लिंक नीचे दिये दे रहा हूँ।