संवाद

ये क़िस्से कहानियाँ हैं अरुण, वास्तविक जीवन में ऐसा कुछ नहीं होता। इन वादियों में बैठ पहाड़, नदी, आसमान, बादल इन सबको को निहारते हुए जीवन नहीं  बिताया जा सकता। यहाँ आना और कुछ दिन ठहर वापस लौट जाना होता है, शहर में ज़माने में, समाज में। 

अब लिखने लगा हूँ

ना जाने तुम कहाँ हो, कैसी हो,किस प्रांत, शहर, या देश जा बसी हो?सालों से तुमको सुना नहीं,चेहरा तो याद है अब भी,पर बरसों से तुमको देखा नहीं। वो तीखे नयन,गुस्से क भार उथाए,ऊँची और सिकुड़ती नाक,बड़ा सा बल खाया माथा,उस पर लटकती 1 लट,और वही सुबह की ताज़ी चाय सी मुस्कान,सब कल ही कीContinue reading “अब लिखने लगा हूँ”